पता नहीं कब और किसका लिखा यह पहाडा बचपन में ही पढ़ा था ,ऐसा दिल में घुसा कि आज तक याद है,आपको बता रहा हूँ गौर करें....नेता एकम नेता !नेता दुनी दगाबाज !नेता तिया तिकडमबाज !नेता चौके चार सौ बीस ! नेता पंजे पुलिस दलाल !नेता छक्के छक्का-हिन्जडा !नेता सत्ते सत्ता-धारी ! नेता अट्ठे aringaabaaj ! नेता नम्मे नमक-हराम ! नेता दस्से सत्यानाश !!इस अनाम कवि को मैं बचपन से ही सलाम करता आया हूँ !!दस छोटी-छोटी पंक्तियों में देश की एक महत्वपूर्ण कौम का समूचा चरित्र बखान कर दिया है ,मगर ये एक कौम तो क्या, शायद कोई भी आदमी कितना भी लांछित क्यों न जाए ,किसी भी कीमत पर देश का सच्चा नागरिक बनने को तैयार नहीं है ,हाँ ;एक-दूसरे को कोसते तो सभी हैं ........ट्रैफिक जाम,तू जिम्मेवार.....रोड पर कूडा ,तू जिम्मेवार ....कहीं कुच्छ भी ग़लत हो जाए ,तो मुझे छोड़कर सारे ग़लत !! फरमाया है .....जहाँ पर मैं रहता था वो वतन कुच्छ ऐसा था .....हर ओर गंदगी और कूre का आलम था ......मैं जहाँ गया वां पान की पीकों की रूताब थी वाह -वाह .....हर दीवार पर थूक की नदियाँ थी वाह-वाह अन्दर गंदे कागजों का ढेर था वाह-वाह ....पेश आते थे सभी बदतमीजी से वाह-वाह ...किसी की कहीं भी उतार देते थे इज्ज़त वाह-वाह ....कोई कहीं भी टट्टी-पेशाब कर सकता था वाह-वाह ...सड़कों पर बहती थी नालियां वाह-वाह ..कितना महान था वह लोकतंत्र वाह-वाह ...कोई वतन की इज्ज़त उतार सकता था वाह-वाह ...तिरंगा पैरों-tale रौंदा jata tha वाह-वाह..नंगी तस्वीरों से पटी पड़ी थीं गलियां वाह-वाह ..सब अपना घर भरने में थे मशगूल... बाप बना देश रोता जाता था वाह-वाह... बहन वेश्याओं की बस्ती में रोतee थी.....और भारत-maa को तो पहले ही बेच दिया था वाह-वाह...वां इसी धर्मनिरपेक्षता थी वाह-वाह ...सब एक दूसरे की ....खींचते थे वाह-वाह...गरीबों के दुखों से किसी का कोई वास्ता न था ...वां सब सरकार गिरते थे वाह-वाह ...बड़ा ही प्यारा ,सबसे न्यारा वतन था वाह-वाह ... बस सब एक दूसरे की "....."मार "रहे थे वाह-वाह .....!!अब badhaane को तो कुछ भी बढाया जा सकता है ,मगर क्या फायदा?इन बातों से लोग बोर ही होते हैं !!सो फिलहाल इतना ही .....अब चलता हूँ ....!!haay ...आगे पढ़ें!
प्रस्तुतकर्ता bhoothnath पर 9:35 PM 1 टिप्पणियाँ
मैं भूत बोल रहा हूँ !!
हा-हा-हा-हा .....!!!! बंद! बंद! बंद! बंद!! हाँ-हाँ बिल्कुल यही सब तो देखता हुआ मै आपकी इसी रांची से परलोक की और कूच कर गया था !!बिल्कुल आपलोगों की तरह खामोश और भयभीत!!कुछ लोग अपने घरों में दुबक गए हैं,क्योंकि कुछ लोग सड़कों पर भड़क गए हैं !!कुछ लोग कि जिनके चहरे हैं या लाठी ,डंडे और हथियार हैं,कुछ लोग कि जिनके ऊपर पागलपन सवार है ,कुछ लोग जो अपने गुस्से की नाव पर सवार हैं......और कुछ लोग जो अपने-अपने घरों में बेबस और बेदार हैं!!ये लोग कौन हैं...वे लोग कौन हैं !!कोई गाड़ी किसी को चीप दे तो बंद!कोई किसी को मार दे तो बंद!कोई सड़क पर मर जाए तो बंद!कोई किसी की बात न माने तो बंद!कभी इसके समर्थन में बंद!कभी उसके विरोध में बंद!कभी मन्दिर का बंद!कभी मस्जिद का बंद!कभी इस दल का बंद!कभी उस दल का बंद!आज आदिवासी बंद!कल गैर-आदिवासी बंद!असल में अब तो झारखण्ड में बंद की खुशियाँ मनाई जानी चाहिए,बाकायदा मिठाइयाँ बांटी जानी चाहिए!नाच-गाने नगाडे की थाप पर बजाते झूमते लोगों की टोलियाँ जगह-जगह मस्ती करती नज़र आए तो समझिए यही अपने सपनो का सुंदर-सा,प्यारा-सा झारखण्ड है!!आज रांची बंद,हांजी!कल टाटा बंद,हांजी!परसों गुमला बंद,हांजी!फिर दुमका बंद,हांजी!..........सुनो ...सुनो...सुनो.....सरकार का ये फरमान है कि अब उसका बस किसी पर नहीं चलता है इसलिये जो शहर जिसके बाप का है वो उसे बंद करा ले !!खुला होना वैसे भी प्रशासन का सिरदर्द है,कौन जाने, कब कहाँ ,कैसा बम फट जाए!!लोग घरों में ही बंद रहें यही अच्छा है!!ना रहे बांस ...ना बजे बांसूरी !! मैं भी सौऊँ ,तू भी सो ...फ़िर सब कुछ अच्छा हो!!सब कोई अपने -अपने घर में सोएं,तो देश में बढ़ता बच्चा हो.... ज्यादा बच्चा माने ज्यादा मानवीय-श्रम की ताकत,ज्यादा श्रम माने देश का ज्यादा विकाश !!यही तो चाहते हैं सब आज!!इसलिये झारखण्ड के नक्शे-कदम पर चलो,हर तरफ बंद-बंद-बंद करते चलो !!! ठप्प हो जाए बिसनेस और व्यापार!!हों जाएँ यहाँ के लोग बेरोजगार!!और बंद से ही हो जाए सबको प्यार!!इस बंद के लोगो का बन जाए देश का इक झंडा,और जो बांको न माने,उसको पड़े इक तेल पिलाया डंडा !!जो परीक्षा में पास हो ,उसे मिले अंडा!!और जो हो फेल ,वो फहराए योग्यता का झंडा!!!हा-हा-हा-हा!!!सब कोई करो रे मिल के बंद ,क्योंकि यही तो है तकनीक के इस युग में विकास झारखंडी फंदा!!झूमो रे..नाचो रे आज...गाओ खुशी के गीत रे..गाओ खुशी के गीत रे .....आज बंद था, कल बंद होगा ...... पिछडेपन का सेहरा हमारे सर पर होगा!!!! मैं भूत बोल रहा हूँ ...मगर परलोक में भी झारखण्ड के आम लोगों... नेताओं... अफसरों... मंत्रियों .... ठेकेदारों के कारनामों से व्यथित होकर पागलों की तरह यहाँ से वहां ढोल रहा हूँ...रब्बा खैर करे यहाँ के लोगों की....लोगों कुछ करो वरना ये लोग तुम्हारे साथ-साथ इस नवोदित राज्य को भी खा जायेंगे...तुम्हारे निशान भी यहाँ रह नही पाएंगे!!!!! ...आगे पढ़ें!
प्रस्तुतकर्ता bhoothnath पर 7:22 PM 0 टिप्पणियाँ
शनिवार, 9 अगस्त 2008
मेरी पूर्व की दुनिया के भाइयों और बहानों ,जिन दिनों मै आपकी दुनिया में रहता था ,उससे कुछ समय पूर्व चाचा ग़ालिब यह कह कर गए थे कि न था कुछ तो खुदा था ,कुछ न होता तो खुदा होता ;डुबोया मुझको होने ने ,न होता मै तो क्या होता !!........ अपने आखरी वक्त तक मैं भी यही सोचता हुआ मरा कि धरती पर रहते हुए भी मैंने ऐसा क्या कबाड़ लिया ,इससे तो बेहतर तो यही होता कि मैं हुआ ही न होता !!जैसी जिंदगी मैं धरती पर गुजार कर आया ,उससे तो जिंदगी शर्मसार ही हुई ,मेरी आखों के सामने जो कुछ घटा ,उसमें यदि मैं चाहता तो थोड़ा बहुत अवश्य परिवर्तन कर सकता था ,किंतु कुछ करना तो दूर ,मैंने तो शायद कुछ सोचने कि हिमाकत नहीं की !! न जाने कितने दंगे ,कितने बलात्कार ,कितनी लूटपाट ,कितना भ्रष्टाचार ,कितनी बेईमानियाँ ,कितना छल-कपट ,कितना झूठ और भी न जाने कितने गलीच कर्म मेरी आंखों के सामने ,हाँ जी मेरी ख़ुद की आंखों के सामने घटे और घटते ही गए ,एक बेबस और निरीह जीव की तरह मैं चुपचाप देखता ही रह गया ,वह मेरी बेशर्मी की पराकाष्ठा ही तो थी !!दरअसल हम सारी जिंदगी मौत से काफी पहले ही मौत से भयभीत रहते हैं , एक आम आदमी के रूप में जो जिन्दगी हम जीते हैं ,उससे तो कहीं बहुत ज्यादा बेहतर किसी कीडे-मकोडे की जिन्दगी है ;ये पशु-पक्षी आदि तो सिर्फ़ उसी वक्त खौफ खाते हैं ,जब उनकी जान पर बन आई हो,मगर तब भी तो वो आखरी वक्त तक मुकाबला करते हैं,जद्दोजहद करते हैं और लहूलुहान होकर जब ये काल का ग्रास बन जाते हैं ,तो इनकी मौत में एक बेहद खास किस्म की शूरवीरता का आभास मिलता है,उनके मुकाबिल हम अपने जीवन को तौलें तो क्या मिलता है ?[घंटा?]इस शब्द के प्रयोग के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ,मगर हमारी बेहूदी स्थिति के लिए इससे "सुंदर" शब्द मैं खोज नहीं पा रहा !!आज अपनी मौत के बाद ये जो मैं सोच रहा हूँ ,यह मैंने अपनी तमाम जिन्दगी में कभी नहीं सोचा ,यदि कभी सोचा होता तो जिस प्रकार की कुत्ते की मौत मैं मरा ,उससे बेहतर भी कुछ घट सकता था अलबत्ता मरना तो फिर भी तय ही था!! मरने के बाद सोचता हूँ कि जिंदगी आराम से मस्ती काटते हुए जीने कि अपेक्ष कुछ बेहतर करके इस दुनिया से कूच करने का नाम है, हाँ यही सच है !!दरअसल आदमी अपनी उपस्थिति धरती पर अपने कर्मों से ही दर्ज करता है !!एक-एक हड्डी के लिए लड़ने का काम कुत्ते का है, आदमी का काम सब कुछ को बांटकर खाना है ,मगर आदमी अपना यह मूल स्वभाव खोकर कुत्ते-बिल्लियों की तरह आपस में लड़ रहा है ,यह देखना बड़ा ही तकलीफदेह है?आदमी दूसरे को तकलीफ में देखकर बड़ा ही खुश होता है!!आदमी दूसरे को मारकर,लूटकर,बलत्कृत कर बड़े मजे लेता है!!.....यदि आदमी ऐसा ही है,तो"थू"था मेरे होने पर!!.......आदमी जो देता है ,आदमी जो लेता है,जिंदगी भर वो दुआएं पीछा करती हैं,......आदमी जो कहता है,आदमी जो सुनता,जिंदगी भर वो सदाएं पीछा कराती हैं!! वैसे तो मैं भूत बोल रहा हूँ मगर अब तक भी आदमियत की अनगिनत कहानियाँ मेरा पीछा नहीं छोड़ती!!और सार यही पाया है की जियो तो सबके साथ प्यार से,प्यार को ही आदमियत का सार बना डालो,आदमी जब भी अपना चेहरा देखे,उसे प्यार दिखे,आदमी जब भी दूसरे का चेहरा देखे,उसे प्यार ही दिखे!!.......शायर ने कहा भी है .... हमको दुश्मन की निगाहों से न देखा कीजे,प्यार ही प्यार हैं हम...प्यार ही प्यार हैं हम,हमपे भरोसा कीजे....!!रौशनी औरों के आँगन में गवारा न सही,कम-से-कम अपने तो घर में ही उजाला कीजे ......दोस्तों कहना तो बहुत खुच है मगर एक ही बार में सारा कुछ कहने से बातें अपच हो जाएँगी.....वैसे मरने के बाद से आदमी से बात करने को तरस गया हूँ मगर अभी जिस जीव के अदंर बैठा हूँ, उसे नींद आ रही है इसलिए अभी शुभरात्रि कल फिर मिलेंगे रब्बा खैर करे.....!! ...आगे पढ़ें
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